पीरू सिंह शेखावत – Company Havaldar Mejar Piru Singh

Indian Army

पीरू सिंह शेखावत (अंग्रेज़ी: Piru Singh, 6 राजपूताना राइफ़ल्स, नं. 2831592; जन्म- 20 मई, 1918, झुंझुनू ज़िला, राजस्थान; शहादत- 18 जुलाई, 1948, तिथवाल, कश्मीर) भारतीय सेना के वीर अमर शहीदों में एक थे। कश्मीर घाटी के युद्ध में सक्रिय रूप से जूझते हुए उन्होंने पीरकांती और लेडीगनी ठिकानों पर अपनी फ़तेह हासिल की थी। वर्ष 1948 में दारापारी के युद्ध में पीरू सिंह ने वीरगति प्राप्त की। उनकी वीरता और बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैनिक सम्मान “परमवीर चक्र” से सम्मानित किया गया था।

जन्म तथा शिक्षा

पीरू सिंह का जन्म 20 मई, 1918 को राजस्थान के झुंझुनू ज़िले के बेरी गाँव में हुआ था। उनके पिता के तीन पुत्र तथा चार पुत्रियाँ थीं। पीरू सिंह अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। सात वर्ष की आयु में उन्हें स्कूल भेजा गया, लेकिन पीरू सिंह का मन स्कूली शिक्षा में नहीं लगा। स्कूल में एक साथी से उनका झगड़ा हो गया था। तब स्कूल के अध्यापक ने उन्हें डाँट लगाई। पीरू सिंह ने भी अपनी स्लेट वहीं पर पटकी और भाग गये। इसके बाद वे कभी पलट कर स्कूल नहीं गये।

व्यवसाय

स्कूली शिक्षा में मन नहीं लगने पर पीरू सिंह के पिता ने उन्हें खेती बाड़ी में लगा लिया। वह एक सम्पन्न किसान थे। खेती में पीरू सिंह ने अपनी रुचि दिखाई। वह अपने पिता की भरपूर मदद किया करते थे। उन्होंने किसानी का कार्य अच्छी तरह से सीख लिया था। किसानी के अतिरिक्त कई प्रकार के साहसिक खेलों में भी उनका बहुत मन लगता था। शिकार करने के तो वह बचपन से ही शौकीन रहे थे। अपने इस शौक़ के कारण वह कई बार घायल भी हुए थे।

सेना में भर्ती

शिकार के शौक़ ने ही पीरू सिंह को सेना में आने और फौजी बनने के लिए प्रेरित किया था। 1936 को पीरू सिंह ने फौज में कदम रखा। उन्हें 10/1st पंजाब में प्रशिक्षण के लिए लिया गया। फिर 1 मई, 1937 को उन्हें 5/1st पंजाब में नियुक्त कर लिया गया। फौज में आने के बाद ही पीरू सिंह के चरित्र में आश्चर्यजनक बदलाव आया। स्कूल में उन्हें पढ़ाई से चिढ़ थी, लेकिन फौज में वह पढ़ाई की ओर से बेहद गंभीर सैनिक सिद्ध हुए। कुछ ही वर्षों में उन्होंने ‘इंडियन आर्मी फर्स्ट क्लास सर्टिफिकेट ऑफ़ एजुकेशन’ सफलतापूर्वक पा लिया। (लेख – पीरू सिंह शेखावत Kapani Havaldar Mejar Piru Singh)

पदोन्नती

अपनी शिक्षा के आधार पर 17 अगस्त, 1940 को पीरू सिंह लांस नायक के रूप में पदोन्नत हो गए। इसी दौरान उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा पर युद्ध में भी भाग लिया। मार्च, 1941 में वह नायक बनाये गए। सितम्बर, 1941 को वह शिक्षा के बल पर ही पंजाब रेजिमेंटल सेंटर में इंस्ट्रक्टर बने, जहाँ वह अक्टूबर, 1945 तक कार्य करते रहे। फ़रवरी, 1942 में वे हवलदार के रूप में पदोन्नत हुए। फिर मई, 1943 में वह कम्पनी हवलदार मेजर बन गये। उनकी तरक्की का यह रुझान हमेशा यह बताता रहा कि पीरू सिंह एक कर्मठ, बहादुर और जिम्मेदार फौजी हैं। (लेख – पीरू सिंह शेखावत Kapani Havaldar Mejar Piru Singh)

जम्मू-कश्मीर का मामला

वर्ष 1947-1948 में जम्मू-कश्मीर क्षेत्र, जो लड़ाई का मैदान बन गया था, उसके पीछे ब्रिटिश राज द्वारा 3 जून, 1947 को की गई वह घोषणा थी, जो उन्होंने देश के विभाजन के साथ-साथ की थी। दरअसल, वह एक चाल थी, जो ब्रिटिश राज की कुटिलता को उजागर कर गई थी। वह भी तब, जब वह भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय बाकायदा घोषित कर चुके थे। (लेख – पीरू सिंह शेखावत Kapani Havaldar Mejar Piru Singh)

ब्रिटिश राज ने प्रस्ताव किया था कि देश के विभाजन के बाद अखण्ड भारत की सभी रियासतें यह चुनने के लिए स्वतंत्र हैं कि वह भारत में रहना चाहती हैं या पाकिस्तान से जुड़ना चाहती हैं या फिर उन्हें स्वतंत्र रहना ही पसन्द है। इनमें से जो रियासतें स्वतंत्र रहना चाहती थीं, उनमें महाराजा हरिसिंह भी थे, जिनका राज्य जम्मू-कश्मीर में था। उन्होंने इसके निर्णय करने की प्रक्रिया में जनमत जुटाना पसन्द किया, जिसके लिए उन्हें कुछ समय चाहिए था। (लेख – पीरू सिंह शेखावत Kapani Havaldar Mejar Piru Singh)

पाकिस्तान का कश्मीर पर हमला

हरिसिंह ने इसके लिए भारत तथा पाकिस्तान से कुछ समय ठहरने का निवेदन किया। भारत ने उनके इस निवेदन को मान लिया, लेकिन पाकिस्तान तो बस हर हाल में कश्मीर को पाना चाहता था। उसने महाराजा हरिसिंह के निवेदन को नहीं माना। पाकिस्तान ने एक रणनीति के तहत कश्मीर की वह आपूर्ति रोक दी, जो उसके क्षेत्र से कश्मीर हमेशा पहुँचती थी। इस आपूर्ति में राशन, तेल, ईधन आदि की बहुत ही आवश्यक सामग्री थीं। (लेख – पीरू सिंह शेखावत Kapani Havaldar Mejar Piru Singh)

इसके बाद पाकिस्तान ने पूरे सैन्य बल के साथ कश्मीर पर हमला कर दिया। उसका इरादा महाराजा हरिसिंह पर दबाव डालने का था कि वह पाकिस्तान के पक्ष में अपना मत प्रकट करें और पाकिस्तान के साथ जुड़ जायें। लेकिन पाकिस्तान को निराशा ही हाथ आई, क्योंकि महाराजा हरिसिंह ने भारत के पक्ष में मत प्रकट किया और भारत से मदद की गुहार की। (लेख – पीरू सिंह शेखावत Kapani Havaldar Mejar Piru Singh)

ऐसी स्थिति में अब भारत के लिए मदद करना आसान था, क्योंकि महाराजा की सहमति से जम्मू-कश्मीर भारत का हो चुका था। 26 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरिसंह ने भारत के पक्ष में अपना मत रखा और 31 अक्टूबर को भारत इस युद्ध में पाकिस्तान से मुकाबले के लिए आ खड़ा हुआ। यह युद्ध कई मोर्चों पर एक साथ लड़ा गया। उनमें से एक मोर्चा दारापारी